रविवार, 11 अगस्त 2013

आदिवासी साहित्‍य के स्‍वरूप, संभावनाओं और सवालों पर बातचीत

आदिवासी साहित्‍य के स्‍वरूप, संभावनाओं और सवालों पर बातचीत
   
गत 29-30 जुलाई को भारतीय भाषा केन्‍द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय ने भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के सहयोग से ‘आदिवासी साहित्‍य : स्‍वरूप और संभावनाएं’ विषय पर दो दिवसीय राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी का आयोजन किया, जिसमें आदिवासी साहित्‍य से जुड़े शीर्ष विद्वानों सहित बड़ी संख्‍या में शोधार्थियों ने भाग लिया. गोष्‍ठी के उद्घाटन सत्र में भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के अध्‍यक्ष और दलित चिंतक प्रो. सुखदेव थोराट (पूर्व यूजीसी अध्‍यक्ष) ने आदिवासी साहित्‍य की जरूरत को रेखांकित करते हुए इस बात पर जोर दिया कि आदिवासी साहित्‍य शेष साहित्‍य से उसी प्रकार भिन्‍न है जैसे शेष समाज से स्‍वयं आदिवासी समाज, इसलिए प्रो. थोराट का सुझाव था कि इसे अपने मानकों से न परखें. उनकी इस बात को आगे बढ़ाते हुए प्रख्‍यात आदिवासी लेखिका और ‘झारखंडी भाषा साहित्‍य संस्‍कृति अखड़ा’ (रांची) की संपादक वंदना टेटे ने गैर आदिवासी रचनाकारों द्वारा आदिवासी जीवन पर किये गए लेखन पर प्रश्‍न उठाये और इस बात पर जोर दिया कि कुछ समय के साथ या सुनी-सुनाई बातों से आदिवासी जीवन का सच प्रस्‍तुत नहीं किया जा सकता. मुख्‍यधारा की सोच, भाषा और दृष्टिकोण से आदिवासी जीवन पर किया लेखन रिसर्च हो सकता है, लेकिन आदिवासी साहित्‍य नहीं. आदिवासी ही अपनी पीड़ा को सही ढंग से बयान कर सकता है. उसकी समस्‍याएं प्रधानतः आर्थिक नहीं हैं, जैसा कि अधिकांश रचनाकारों ने चित्रित किया है. समाजशास्‍त्री प्रो. आनंद कुमार ने अस्मिता, अस्तित्‍व, अविश्‍वास आदि सात अकारों के माध्‍यम से आदिवासी जीवन की सच्‍चाइयों का समाजशास्‍त्रीय पक्ष सामने रखा. राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी के संयोजक और भारतीय भाषा केन्‍द्र, जेएनयू के प्राध्‍यापक डॉ. गंगा सहाय मीणा ने गोष्‍ठी के उद्देश्‍य के बारे में बताते हुए कहा कि स्‍त्रीवादी और दलित लेखन के बाद हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में हो रहे आदिवासी लेखन के स्‍वरूप, संभावनाओं और चुनौतियों को समझने तथा इस संदर्भ में गढ़े जा रहे भ्रमों का निवारण करने की दिशा में हमने इस बातचीत का आयोजन किया है. इस सत्र में जेएनयू के कुलपति प्रो. सुधीर कुमार सोपोरी और भारतीय भाषा केन्‍द्र के अध्‍यक्ष प्रो. रामबक्ष ने भी अपनी बात रखी और आदिवासी साहित्‍य की जरूरत पर बल दिया.
      गोष्‍ठी के पहले सत्र में आदिवासी साहित्‍य के क्षेत्र में सक्रिय आदिवासी रचनाकारों और साहित्‍य विशेषज्ञों ने आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा पर विचार किया और विभिन्‍न आदिवासी भाषाओं में हो रहे आदिवासी लेखन का जायजा लिया. इसमें भागीदारी करने वाले विद्वानों में अश्विनीकुमार पंकज, वाहरू सोनवणे, अनुज लुगुन, काशराय कुदादः, डॉ. धनेश्‍वर मांझी, जोवाकिम टोपनो, प्रो. अगुस्‍टीन महेश कुजूर, सुषमा असुर, डामू ठाकरे, जवाहरलाल बंकिरा, श्‍यामचरण टुडु आदि शामिल हैं. इन्‍होंने संथाली, मुंडारी, हिंदी, हो आदि भाषाओं में हो रहे आदिवासी लेखन के विविध पक्षों पर अपनी बात रखते हुए बताया कि आदिवासी साहित्य एक भिन्न संस्कृति और विश्वदृष्टिकोण का साहित्य है. आदिवासी समाज के जीवनदर्शन और मुख्यधारा के दर्शन में कोई समानता नहीं है. सहजीविता, सहअस्तित्व और समानता को जीनेवाले प्रकृति केन्द्रित आदिवासी समुदाय नैसर्गिक तौर पर मौलिक हैं. वह अर्थकेन्द्रित और शास्त्र शासित समाज भी नहीं है. इसलिए उसकी शब्दावली तो गैर-इंसानी है और ही प्रकृति विरूद्ध. वक्ताओं ने कहा कि गैर-आदिवासी समाजों में शक्ति संरचना का आधार आर्थिक है जबकि हमारे जीवनदर्शन में अर्थ का कोई मोल नहीं है. समष्टि के समस्त जड़-चेतन वस्तुओं का आदिवासी सम्मान करते हैं. इसीलिए आदिवासी विश्वदृष्टिकोण में असुंदरता जैसा कोई भाव नहीं है. आदिवासी पुरखा (लोक) साहित्य के गीत और कहानियां इसी दर्शन के अनुरूप हैं और लिखित साहित्य में भी आदिवासी लेखक इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.
      इसके बाद के सत्र में हिंदी में आदिवासी जीवन पर लिख रहे साहित्‍यकारों और चिंतकों ने आदिवासी साहित्‍य के बारे में अपनी भिन्‍न राय रखी. उनके अनुसार आदिवासी साहित्‍य लिखने के लिए आदिवासी होना जरूरी नहीं है. आदिवासी जीवन भी पूरे देश में एक जैसा नहीं है. हिंदी साहित्यकारों ने कहा कि आदिवासी जीवन में तेजी से बदलाव रहा है और संसाधनों पर कब्जे के लिए हो रहे वैश्विक हमलों में उनके खत्म हो जाने की पूरी संभावना है. इस सत्र में विनोद कुमार, रणेन्‍द्र, संजीव, निर्मला पु‍तुल, रमणिका गुप्‍ता, प्रो. श्रवणकुमार मीणा, प्रमोद कुमार तिवारी और संजय कुमार सुमन ने हिस्‍सेदारी की.
पहले दिन के सत्र का समापन अश्विनी कुमार पंकज द्वारा लिखित और निर्देशित कविताभाषा कर रही है दावाके एकल परफॉरमेंस से हुआ. जिसे प्रस्तुत किया आदिवासी अभिनेता अनुराग लुगुन ने. भाषा के जरिए कॉरपोरेट लूट और दमन के खिलाफ आदिवासी संघर्ष की यह प्रभावी प्रस्तुति थी. संगीत संचालन विजय कुमार गुप्ता और प्रकाश व्यवस्था राजेन्द्र सिंह की थी. जबकि कविता के कुछ अंशों का मुण्डारी अनुवाद युवा कवि अनुज लुगुन ने किया था. प्रस्तुति उलगुलान संगीत नाट्य दल, रांची की थी.
      गोष्‍ठी के दूसरे दिन आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा, इतिहास, विधावार विशेषताओं, आदिवासी साहित्‍य के समाजशास्‍त्र, ग्‍लोबल समाज में आदिवासी भाषा-साहित्‍य आदि विषयों पर समानांतर सत्रों का आयोजन किया गया, जिनमें हरिराम मीणा, प्रो. कला जोशी, प्रो. हरिमोहन शर्मा, प्रो. महेन्‍द्रपाल शर्मा, प्रो. गोबिंद प्रसाद, डॉ. देवेन्‍द्र चौबे, डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी, डॉ. रमण प्रसाद सिन्‍हा, डॉ. रामचंद्र, डॉ. ओम प्रकाश सिंह, प्रो. किम उ जो (कोरिया), देवयानी भारद्वाज, डॉ. प्रमोद मीणा, डॉ. सुरेश जगन्‍नाथम, डॉ. रामकिंकर पांडेय, डॉ. विनोद विश्‍वकर्मा, डॉ. कुलदीप मीणा, डॉ. भारती, देवयानी भारद्वाज, डॉ. बन्‍नाराम मीणा के महत्‍वपूर्ण व्‍याख्‍यानों सहित बड़ी संख्‍या में शोधार्थियों ने हिस्‍सेदारी की. शोध-पत्र प्रस्‍तुतकर्ताओं में वीरेन्‍द्र कुमार मीणा, जैनेन्‍द्र कुमार, कविता यादव, राजकुमार मीणा, सोनम मौर्य, ओमप्रकाश साह, उषा किड़ो, ओमप्रकाश मीणा, रुबीना सैफी, नीतीशा खलखो, अभिषेक कुंदन, जाहिदुल दीवान, गणेश मांझी, हीरालाल यादव, हनुमान सहाय मीणा, डॉ हर्षिता, डॉ. सूरज, राजेश्‍वर कुमार, गणेश डी., सुधा निकेतन रंजनी, स्‍तुति राय, रूपेश शुक्‍ला, वसुंधरा गौतम, भंवरलाल मीणा, निशा सिंह, अभिषेक यादव, लखिमा देउरी, राजवीर सिंह आदि प्रमुख हैं. समापन सत्र में आदिवासी भाषाओं पर काम करने के लिए पद्मश्री से सम्‍मानित प्रो. अन्विता अब्‍बी, प्रो. सुधा पई और दिलीप मंडल ने भागीदारी की. तमाम वक्‍ताओं ने आदिवासी साहित्‍य की जरूरत और चुनौतियों पर अलग-अलग पक्षों से अपनी बात रखी.
गोष्‍ठी में आदिवासी जीवन और साहित्‍य से जुड़े दो मुद्दे छाये रहे- गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासी जीवन पर किये गए लेखन को आदिवासी साहित्‍य कहेंगे या नहीं! दूसरा, क्‍या आदिवासी अस्तित्‍व-रक्षा के लिए तथाकथित मुख्‍यधारा में विलयन जरूरी है? गौर करनेवाली बात है कि इन मुद्दों पर आदिवासी रचनाकारों व चिंतकों और गैर-आदिवासी रचनाकारों व चिंतकों की राय भिन्‍न थी. आदिवासी चिंतक और साहित्यकार जहां आदिवासी विश्वदृष्टिकोण पर जोर दे रहे थे, वहीं अधिकांश गैर-आदिवासी लेखक-चिंतक सामाजिक-आर्थिक आधार और विकास के आधुनिक मापदंडों के अनुसार आदिवासी जीवन की खूबियों व अंतर्विरोधों की चर्चा कर रहे थे. उनकी चर्चा का मूल स्वर यह भी था कि गैर-आदिवासी लेखकों द्वारा आदिवासी विषय पर लिखे गये साहित्य को भी आदिवासी साहित्य माना जाना चाहिए. परंतु आदिवासी लेखक अपने और मुख्यधारा के साहित्यिक अनुभवों के आधार पर इससे सहमत नहीं थे. आदिवासियों का कहना था कि आदिवासी जीवनमूल्यों के अनुरूप रचे गये साहित्य को ही आदिवासी साहित्य कहा जा सकता है. उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि तथाकथित मुख्यधारा में वे अपना और न ही दुनिया का कोई भविष्य देखते हैं.
संगोष्‍ठी में आदिवासी साहित्‍य से जुड़े विभिन्‍न मसलों पर विस्‍तार से बात तो हुई ही, इस‍के अलावा भी यह गोष्‍ठी कई मायनों में भिन्‍न रही. हिंदी की गोष्ठियों से भिन्‍न इस गोष्‍ठी का आरंभ असुर लेखिका सुषमा असुर द्वारा सृष्टि और पुरखों के स्‍मरण और नगाड़े की गूंज के साथ हुआ. अतिथियों का स्‍वागत सखुआ का पत्‍ता और आदिवासी गमछा भेंट कर किया गया. किसी भी सत्र में न कोई अध्‍यक्ष था और न ही धन्‍यवाद ज्ञापन की औपचारिकता. आदिवासी परंपरा के अनुकूल. सामूहिक, समतामूलक और सहभागी. देश के अकादमिक और बौद्धिक जगत में यह पहला राष्ट्रीय आयोजन था जिसमें आदिवासी साहित्य और उसके सौंदर्यबोध समाजशास्त्र पर सिर्फ शब्दों के जरिए चर्चा नहीं हुई बल्कि आयोजन और विमर्श में आदिवासी परंपरा संस्कृति का पूरी तरह से पालन और सम्मान हुआ. गोष्‍ठी की एक खासियत यह भी थी कि यह दिल्‍ली में आदिवासी साहित्‍य पर पहली गोष्‍ठी थी और इसमें आदिवासी क्षेत्रों में भाषा-साहित्‍य के क्षेत्र में सक्रिय आदिवासियों द्वारा बड़ी संख्‍या में भागीदारी की गई. जिसमें अधिकांश युवा थे. यही नहीं, झारखंड से आए आदिवासी साहित्यकार अपने पारंपरिक पहनावे के साथ शामिल थे. कुल मिलाकर गोष्‍ठी अपने उद्देश्‍य आदिवासी जीवन और समाज की साहित्‍य के माध्‍यम से प्रस्‍तुति कर रहे आदिवासी और गैर-आदिवासी साहित्‍यकारों और विशेषज्ञों के संवाद द्वारा आदिवासी साहित्‍य के बारे में समझ का विकास करने में सार्थक और सफल रही.


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