रविवार, 9 जून 2013

आदिवासी साहित्‍य : स्‍वरूप और संभावनाएं
(दो दिवसीय राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी)
29-30 जुलाई, 2013
भारतीय भाषा केन्‍द्र
जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय
नई दिल्‍ली-110067 भारत

सेमिनार के बारे में-  यह भारतीय समाज, राजनीति और साहित्य में उत्पीड़ित अस्मिताओं के मुक्तिकामी संघर्षों का दौर है। स्‍त्रीवादी साहित्‍य और दलित साहित्‍य के बाद अब आदिवासी चेतना से लैस साहित्य भी साहित्य और आलोचना की दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है। हालांकि आदिवासी लोक में साहित्य सहित विविध कला-माध्यमों का विकास तथाकथित मुख्यधारा से पहले हो चुका था, लेकिन वहां साहित्य सृजन की परंपरा मूलत: मौखिक रही। जंगलों में खदेड़ दिए जाने के बाद भी आदिवासी समाज ने इस परंपरा को अनवरत जारी रखा। ठेठ जनभाषा में होने और सत्ता प्रतिष्ठानों से दूरी की वजह से यह साहित्य आदिवासी समाज की ही तरह उपेक्षा का शिकार हुआ। आज भी सैकड़ों देशज भाषाओं में आदिवासी साहित्य रचा जा रहा है, जिसमें से अधिकांश से हमारा संवाद कायम होना अभी शेष है।
     आज आदिवासी समाज चौतरफा चुनौतियों से घिरा है। आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के लिए इतना गहरा संकट इससे पहले नहीं पैदा हुआ। जब सवाल अस्तित्व का हो तो प्रतिरोध भी स्वाभाविक है। सामाजिक और राजनीतिक प्रतिरोध के अलावा कला और साहित्य के द्वारा भी प्रतिकार की आवाजें उठीं, और वही समकालीन आदिवासी साहित्य का मुख्य स्वर हो गया। जब-जब दिकुओं ने आदिवासी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप किया, आदिवासियों ने उसका प्रतिरोध किया है। पिछली दो सदियां आदिवासी विद्रोहों की गवाह रही हैं। इन विद्रोहों से रचनात्मक ऊर्जा भी निकली, लेकिन वह मौखिक ही अधिक रही। संचार माध्यमों के अभाव में वह राष्ट्रीय रूप नहीं धारण कर सकी। समय-समय पर गैर-आदिवासी रचनाकारों ने भी आदिवासी जीवन और समाज को अभिव्यक्त किया। साहित्य में आदिवासी जीवन की प्रस्तुति की इस पूरी परंपरा को हम समकालीन आदिवासी साहित्य की पृष्ठभूमि के तौर पर रख सकते हैं।

     आदिवासी साहित्य अस्मिता की खोज, दिकुओं द्वारा किए गए और किए जा रहे शोषण के विभिन्न रूपों के उद्घाटन और आदिवासियों पर मंडराते संकटों और उनके मद्देनजर हो रहे प्रतिरोध का साहित्य है। यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्तक्षेप है जो देश के मूल   निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है और उनके जल, जंगल, जमीन को बचाने के हक में उनके आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ खड़ी होती है। आदिवासी साहित्य की उस तरह कोई केंद्रीय विधा नहीं है, जिस तरह स्त्री लेखन और दलित साहित्य की आत्मकथात्मक लेखन की है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, सभी प्रमुख विधाओं में आदिवासी और गैर-आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी जीवन समाज की प्रस्तुति की है। आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष में कविता को अपना मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी लेखन में आत्मकथात्मक लेखन केंद्रीय स्थान नहीं बना सका, क्योंकि स्वयं आदिवासी समाज आत्म से अधिक समूह में विश्वास करता है। अधिकतर आदिवासी समुदायों में काफी बाद तक भी निजी और निजता की धारणाएं घर नहीं कर पार्इं। परंपरा, संस्कृति, इतिहास से लेकर शोषण और उसका प्रतिरोध- सबकुछ सामूहिक है। समूह की बात आत्मकथा में नहीं, जनकविता में ज्यादा अच्छे से व्यक्त हो सकती है। 

आदिवासी साहित्य में आर्इं आदिवासियों की समस्याओं को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है- उपनिवेश काल में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से पैदा हुई समस्याएं, और दूसरे, आजादी के बाद शासन की जनविरोधी नीतियों और उदारवाद के बाद की समस्याएं। आदिवासी कलम तेजी से अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रही है। आजादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएं वनोपज पर प्रतिबंध, तरह-तरह के लगान, महाजनी शोषण, पुलिस-प्रशासन की ज्यादतियां आदि हैं, जबकि आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के मॉडल ने आदिवासियों से उनके जल, जंगल और जमीन छीन कर उन्हें बेदखल कर दिया। विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई। इस प्रक्रिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे छूट रही है, दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है, इसलिए आज का आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है।
       ऐसे दौर में आदिवासी समाज की चिंताओं से संवाद करने के लिए आदिवासी साहित्‍य एक सशक्‍त माध्‍यम बन सकता है. इस वक्‍त देश-विदेश में आदिवासी साहित्‍य से जुड़े विषयों पर बड़ी संख्‍या में शोध कार्य हो रहा है, बड़ी संख्‍या में आदिवासी भाषाओं में पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं. ऐसे समय में आदिवासी साहित्‍य के विविध पक्षों पर बात करते हुए उसके स्‍वरूप की पहचान करना और संभावनाओं की तलाश लाजिमी है. इसी लक्ष्‍य को ध्‍यान में रखते हुए इस राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी का आयोजन किया जा रहा है. इसमें देशभर से अलग-अलग भाषाओं, अलग-अलग क्षेत्रों और विभिन्‍न आदिवासी समुदायों व उनके साहित्‍य से जुड़े विशेषज्ञ भाग लेंगे. 


 गोष्‍ठी के उप-विषय
·        आदिवासी समाज और साहित्‍य
·        आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा
·        समकालीन आदिवासी लेखन पहचान और प्रवृत्तियां
·        भाषाओं की मुक्ति का संदर्भ और आदिवासी भाषाएं
·        आदिवासी साहित्‍य का इतिहास और विकास
·        आदिवासी साहित्‍य की प्रवृत्तियां
·        आदिवासी साहित्‍य की विचारधारा का प्रश्‍न
·        आदिवासी कविता : इतिहास और प्रवृत्तियां
·        आदिवासी उपन्‍यास : इतिहास और प्रवृत्तियां
·        आदिवासी कहानी : इतिहास और प्रवृत्तियां
·        आदिवासी नाटक और रंगमंच
·        आदिवासी साहित्‍य के समक्ष चुनौतियां और संभावनाएं
·        आदिवासी विमर्श, आदिवासी आलोचना और आदिवासी चिंतन
·        आदिवासी साहित्‍य और दलित साहित्‍य
·        आदिवासी साहित्‍य में स्‍त्री का प्रश्‍न

शोध-पत्र का सार भेजने की अंतिम तिथि- 5 जुलाई, 2013 (शब्‍द सीमा- 300 शब्‍द)

शोध-पत्र भेजने की अंतिम तिथि- 20 जुलाई, 2013 (शोध पत्र मौलिक व अप्रकाशित हो)


गोष्‍ठी संबंधी किसी भी तरह का संवाद करने के लिए ईमेल पता- adivasisahityaseminar@gmail.com

रजिस्‍ट्रेशन शुल्‍क- 300रुपये- विद्यार्थी/शोधार्थी                        500रुपये-  फैकल्‍टी

* रजिस्‍ट्रेशन शुल्‍क केवल शोध-पत्र प्रस्‍तुत करने वाले प्रतिभागियों के लिए.
* प्रतिभागियों के आवास-भोजन की व्‍यवस्‍था होगी. यात्रा-भत्‍ता का निर्धारण अनुदान की उपलब्‍धता के आधार पर किया जाएगा. विभिन्‍न संस्‍थानों में कार्यरत प्रतिभागियों से निवेदन है कि वे अपने संस्‍थान से यात्रा-भत्‍ता प्राप्‍त करने की कोशिश करें.

संयोजक- डॉ. गंगा सहाय मीणा
स. प्रोफेसर, भारतीय भाषा केन्‍द्र
जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय
नई दिल्‍ली-110067
मोबाइल- 0-9868489548
ऑफिस- 011-2673873226704217

सलाहकार समिति- प्रो. रामबक्ष (अध्‍यक्ष), प्रो. वीरभारत तलवार, प्रो. गोबिंद प्रसाद, डॉ. देवेन्‍द्र चौबे, डॉ. रमण प्रसाद सिन्‍हा, डॉ. राम चंद्र, डॉ. ओमप्रकाश सिंह